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15 May 2024 · 2 min read

आदमी कहलाता हूँ

क्या मैं सच में भाग रहा हूँ चीजों से!
क्या मैं सच में डरपोक हूँ।।
क्या नहीं होता अब,
क्या यह सच है?
या केवल तेरे दिमाग़ की उपज है।।

देख! आज फ़िर तू नहीं रख पाया अपनी बात।
आज़ फ़िर छूट गया एक अपना साथ।।

कैसा लग रहा है इस निरंतर,
भागने की प्रक्रिया का हिस्सा बनकर।।
न थी दुनिया ऐसी, न था कभी ‘दिनकर’।

मन ने देखा था एक ख्वाब, जो रह गया अधूरा ।
डगमगाते क़दम, राह पर चलना चाहता हूँ।।
चाहता हूँ, न डरूं! फ़िर भी डरता जाता हूँ।।

दुनिया है, कोसेगी मुझको, क्यूँ चलने से कतराता हूँ।
थोड़ा हूँ खपरैला मैं, थोड़ा जिद्दी और अकड़ू हूँ।
नादां पंछी बनकर के, कारवां बुनता जाता हूँ।।

भीड़ में हूँ, अकेला मैं, अकेले में मैं भीड़ भी हूँ।
काफ़िला-ए-जिंदगी है और शायद अधेड़ भी हूँ।।

न रुकती है जब चलती है।
ख़ासियतें हैं कलम में कई।
पहचान नहीं पाता हूँ।।

जैसा रास्ता दिखता है,
बस चलते जाता हूँ।
संभलना भी जानता हूँ मैं,
फ़िर भी गिरता जाता हूँ।।

गीत सुनहरे, शब्द गहरे,
खोया अस्तित्व ढूंढता चला जाता हूँ।
मन का मनका पार लगाये,
ऐसी स्थिति में जाना चाहता हूँ।।

रोक नहीं पाता हूँ, सोच।
खोल नहीं पाता हूँ, मन।
सुनना चाहता हूँ, सुन भी नहीं पाता हूँ।
सोचना चाहता हूँ, सोच नहीं पाता हूँ।
बस…! बोलता चला जाता हूँ।।

छांव में पांव पसारती थकान
मकान की तलाश में भटक रहा तन।
तन रुपी मन को मिलेगी राहत कभी,
वहम ने पाला अहम, और मैं
जगनिंदा में फंसता जाता हूँ।
आदमी हूँ, आदमी कहलाता हूँ।।
‌- ‌ ‘कीर्ति’

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