आदत है हमें गरीबी की
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आदत है हमें गरीबी की।
जाड़ों में पानी और
गर्मियों में,धूप ओढ़ने की।
बरसात के दिनों में
चुतिया सा चूते छत में भींगने की।
तमाम अमीरी को
नपुंसक गालियों से कोसने की।
हमारा आक्रोश ऊसर है।
किन्तु,
फटे तो राजाज्ञों से ऊपर है।
गरीबी शासक सा प्रजातांत्रिक है।
मारण,उच्चाटन,सम्मोहन सा तांत्रिक है।
मरोगे यदि अमीरी की तरफ उठाया आँख।
गरीबी से सम्मोहित है हमारा पाँव।
उच्चाटन के हवन से ध्रुमाक्ष और ठंढा राख।
स्मरण है।
हमने अकुशल,अभद्र अमीरी का
किया था विरोध।
आवाजें उठी थी बहुत,फटे थे श्रवण-पर्दे।
नुकीले भालों ने डाला,इस युद्ध में बहुत अवरोध।
हम अपनी गरीबी से गये थे डर।
बना लिया था अपना डर ही जहर।
हमारी नियति ही है बेवजह मरना।
हमारा भाग्य ही है बेपनाह डरना।
आदत है सारा श्रम समर्पण करना।
हमें इसकी सौदेबाजी का नहीं है अधिकार।
ऐसी प्रणाली है शासन की,ऐसी है सरकार।
हर गरीबी,
योद्धा बनने की ख़्वाहिश में मर जाता है।
क्योंकि
हर प्रयास पर सारी अमीरी खानदान सहित
इकट्ठे हुए,ग्रन्थों को खोलकर फिर और फिर।
हमने अपना पाँव अंगद का बनाया तो
गालियों से भरी गीतें
रसोईघरों से भी आया तिर।
मौन हमारा संबल, हम सँभाले रहे।
श्वेद ही मात्र हमारे जीवन में
हमारे उजाले रहे।
हमारे टोलों में अमीरी जब टहलते हैं।
हमें ही पता है हमें कितना! खलते हैं।
बहुत सारे अनचाहे बच्चे यहाँ पलते हैं।
हमें पता है हमारे स्वाभिमान के सारे अभिमान
कैसे गलते हैं!
गरीबी,पंडित बनेगा,सोचकर अस्सी वर्षीया सारे अनुभव
युवाओं में बांटने उठा तो,
रोका था हमें बनने से तुम्हारा वैभव।
ग्रन्थों ने कहा कि ये अनुभव अशिक्षित थे।
जीवन से तो थे,गुरु से नहीं थे दीक्षित,
अत: अदीक्षित थे।
मंदिरों से सारे ईश्वर निकल आए थे बाहर।
हर संभाव्य भविष्य को करने अव्यक्त,तू अभी ठहर।
गरबी ज्ञान के प्यास से तड़पा था।
उसके हिस्से का सारा ज्ञान किसीने तो हड़पा था।
हमारा कर्म सूर्य-रश्मि सा था किन्तु,
अमीरी ने कर दिया प्रभाहीन।
हमारा रक्त सूर्य के क्रोड में हुआ था तप्त
अमीरी ने कर दिया दीन,हीन,मलिन।
———————29/9/21————————–