आत्म-शोधन
उद्वेग,भावना विद्वेष से
जाज्वल्यमान हो
विचरता रहा पथिक
कभी भाव शून्य हो
तो कभी उद्वेलित
किसी जलपात्र सादृश्य
न जाने क्या-क्या ,
विचारता रहा पथिक
महत्वकांक्षाओं की वो,
विचित्र विमान में कभी
तो कभी इच्छाओं को..
सन्तुलित कर
एक कुशल तैराक- सा
अग्रेषित होता रहा वो
आत्मविश्वास से प्रतिदीप्त हो
हो कभी प्रगतिशील रहा
सजग होकर इस
संघर्ष-ब्रह्माण्ड में,
चेतनशील रहा।
कभी हठधर्मिता का पालन कर,
जीवन का स्वाध्याय किया उसने।
ध्येय लेकर जीवन की
जटिलताओं का पुनरावलोकन कर
जीवन-संकल्प का अध्याय,
लेखन प्रारम्भ किया उसने
कभी भावातिरेक की लहरों में,
दूर कहीं प्रवाहित हुआ।
तो कभी सत्य-असत्य के
ज्वार से प्रकम्पित हुआ।
कभी डोलायमान रहा
हिमगिरि-सा वो
तो चलायमान रहा,
कभी जीवन-चक्र सादृश्य
इस तरह ही केवल
विचरता रहा पथिक..
उद्वेग,भावना विद्वेष से
जाज्वल्यमान हो
विचरता रहा पथिक..
बस विचरता रहा पथिक..
भारत भूषण पाठक”देवांश”