*आत्म मंथन*
जिन्दों को चेन नहीं।
मुर्दों को राह नहीं ।।
शवों को दाह-संस्कार की,
वसुंधरा नहीं ।
बिवाह में घोड़ी पर ,
बैठने का अधिकार नहीं।।
ऐसे मज़हब में ,
जीने का अधिकार नहीं।।
त्याग दो मज़हब का मुखोटा,
जिसमें समता का संस्कार नहीं।
हम से तो वे चेतन परिंदे,
विचरण करते हैं।
कहीं मन्दिर पर, कहीं मजिद,
पर बैठते हैं ।
हम बंद पिंजरे के पंछी है।
जिनको स्नेह का निवाला नहीं।।
जाग उठो,
तोड़ डालो।
कलम और शिक्षा के भाल से।
लिख डालो नव इतिहास,
अपने मन ,कपाल पे
नारायण अहिरवार
(अंशु कवि)