“आत्म-निर्भरता और दुनिया”
कभी मैं भूल जाती हु
कभी उन्हें याद रहता है,
भूल-भलैया खेल में आखिर,
अजनबी ही साथी बन साथ निभाते है,
नज़र तो है जो परख लेती है,
पर अपने ही मुश्किलें बढ़ा देते है,
हमने सोचा बात कापी-किताबों तक है,
गद्दार चाकू-छुरों से वार कर बैठे….।।
मिले कोई डोर दिलों के संयोजन की,
अपना भी …………..उद्धार हो जाए,
महेंद्र परवाह नहीं सकता ,
दुनिया की :-
कोई दिवाना कहता है,
कोई पागल समझता है,
अपनी तो दुनिया खुद से शुरू होकर,
आत्म-निर्भरता …….पैदा करती है,
डॉ महेन्द्र सिंह खालेटिया,