” आत्महत्या क्यूँ “
“आत्महत्या क्यूँ ”
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क्यूँ जिंदगी भी
मौत से सस्ती हो गई है
क्यूँ शोहरत भी
जीने के लिए जरुरी हो गई है
क्यूँ भागता है
इंसान उन रास्तों पर जहां में
क्यूँ मौत से पहले
आत्महत्या जरुरी हो गई है ?
क्या मुफलिसी की
जिंदगी बेमोल हो गई है
क्या दो जून की
रोटी से बड़ी ख्वाहिश हो गई है
क्या हुआ इंसान को
हर दौर से गुजर रहा है पाने की चाह में
क्या लाइ थी जिंदगी
जिसे खोने के डर से परेशान हो गई ?
खुद को सबल
कहने वाली जिन्दगी इतनी निर्बल क्यूँ हो गई है
जिंदगी को चाहने
वाली जिंदगी ही इतनी बेनूर क्यूँ हो गई है
हौसलों की बात
करने वाली जिंदगी भटक जाती क्यूँ राह में
एक-दूजे से आगे
बढ़ने की होण में जिंदगी इतनी मजबूर क्यूँ हो गई है?
प्रतिष्ठा खोने के
डर से जिंदगी क्यूँ अवसाद में तू हो गई है
कायर कहूं तुझे
या कहूँ मौकापरस्त-ऐ-जिंदगी क्यूँ बेवफा हो गई है
हासिल हो हर मुकाम
हर किसी को यह जरूरी तो नहीं इस कायनात में
कुछ तो लोग कहेंगे
हम जीना छोड़ देंगे क्यूँ इसकी परवाह तुझमें हो गई है ?
तमन्ना जीने की नही
अपनों का दुखा के दिल इतनी खुदगर्ज क्यूँ हो गई है
चलो मान ली मंजिल नहीं
मिली हमसफ़र की फिर ऐसी बुजदिली क्यूँ हो गई है
खुदखुशी आसान तो नहीं
मरने से पहले जीने का अंतर्द्वन्द चला तो होगा सीने में
ऋण चुकाने का बोझ नही
भारी फिर सामने उसके जिंदगी हल्की क्यूँ हो गई है ?
******* सत्येन्द्र प्रसाद साह (सत्येन्द्र बिहारी) *******