आत्महंता।
एक ही पल होता है टूटने का ,
एक ही छण होता है बिखरने का,
और ये एक ही पल ,
एक ही छण,
अचानक ही नहीं आ जाता,
इसके पीछे छुपे रहते हैं,
दिन,
हफ्ते,
महीने,
साल,
जो उसे कोंचते रहते हैं,
सालो साल,
जो करते हैं आत्मघात,
उसके अपने,
नहीं समझ पाते उसकी परेशानियां ,
नहीं जान पाते ,
नहीं डिकोड कर पाते,
उसके परेशान होने की निशानियां,
उसको धीरे धीरे कत्ल करती,
उसकी पीड़ादायक कहानियां,
ये कहना आसान है,
बहुत ही आसान है,
की जो स्वयं चला गया वह कायर था ,
डिफेक्टिव था,
फ्यूज हो चुका वायर था,
पर क्या कभी हम यह भी सोचते हैं,
की हम उन्हें क्यों नहीं समझ नहीं पाए,
क्यों हमारी निगाहों से ओझल रह गए,
उनकी आत्मा पर तैरते काले साये,
हम स्वयं को बहुत समझदार ,
दयावान समझते हैं,
पर वास्तविकता के धरातल पर,
हम अपनी अपनी,
स्वार्थ की वैसाखियों के सहारे ही चलते हैं,
और ये वैसाखियाँ,
हमें टोकती हैं,
हमें रोकती हैं,
तथा ये हमें वही दिखाती हैं,
जो ये स्वार्थ की आंखों से देखती हैं।