” आत्मविश्वास “
ज़िन्दगी के नकारात्मक पहलू
हार मानने लगे हैं
मेरे जबरेपन से डर कर
अपनी आँख चुराने लगे हैं ,
हर छोटी – छोटी बात पर
ये अकड़ने लगे थे
अब मेरी अकड़ देख कर
खुद में सिकुड़ने लगे हैं ,
ज़रा सा ढील दी थी
तो सर पर चढ़ने लगे थे
जैसे ही नकेल कसी तो
सरपट उतरने लगे हैं ,
चुप रहने से ये मेरे
खुद को खुदा समझ बैठे थे
जब मुँह खुला तो
अपनी औकात में रहने लगे हैं ,
कैसे नज़र अंदाज़ कर सकती हूँ
बात – बात पर हर बात पर
नज़र जैसे ही तरेरी तो
नज़र झुका कर खड़े होने लगे हैं ,
अंधेरों से भी ज़रा ज़्यादा
काले और गहरे होने लगे थे
आशा की एक किरण से
देखो कैसे चौंधियांने लगे हैं ,
हद का गुरूर था इनको
अपने आप पर
इसी सूरूर में ये
अपना झूठा वजूद खोने लगे हैं ,
हावी हो नही सकते ये
किसी भी कीमत पर
खुल कर खुली हवा में
हम सांस लेने लगे हैं ,
वो दूर खड़े आँखे फाड़े
छुप – छुप कर देखते हैं
कैसे हम ज़िंदगी को
अब जी भर कर जीने लगे हैं ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 07/09/2020 )