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19 Apr 2022 · 5 min read

आत्मबोध

आलेख
आत्मबोध
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हमारे जीवन में बहुत बार कुछ ऐसा हो ही जाता है,जिसकी कल्पना तक हम नहीं करते , सोचते भी नहीं होते, या यूं भी कह सकते हैं कि हमें विश्वास भी करना मुश्किल हो जाता है।
इस बहुरंगी दुनिया की लीला भी अस्थिर है। ऐसे में मैं अपना खुद का ही अनुभव उदाहरण के तौर पर रखता हूं।
मेरा साहित्यिक दायरा तेजी से बढ़ रहा है। ये प्रसन्नता की बात तो है ही, मगर इस दायरे में बहुत से ऐसे रिश्ते भी बनते जा रहे जिसके बारे में सोचना भी अजूबा सा लगता है।
मगर सच्चाई है। ७८ वर्षीय बुजुर्ग श्री गोपाल सहाय श्रीवास्तव जी(अहमदाबाद) का साहित्य जगत से दूर दूर तक का नाता नहीं है। फिर भी मेरी एक रचना से प्रभावित होकर मुझे करीब डेढ़ वर्ष पहले फोन किया था। उसके बाद तो ये सिलसिला कब भावनाओं से जुड़ते हुए रिश्तों में तब्दील हो गया कि पता ही न चला। अब सहाय दंपत्ति की भूमिका मेरे लिए पितृवत,मातृवत है। एक माता पिता की तरह मेरी हर खुशी,दु:आ, समस्याएं उन्हें प्रभावित करती हैं, तो मैं भी अपनी हर समस्या, सुख, दु:ख, उपलब्धियों को उनसे साझा करके संतोष का अनुभव करता हूं।हर तरह की समस्या का यथा संभव निदान भी वो पितृत्व करते हैं। ताज्जुब होगा आपको कि आज तक हम कभी मिले नहीं है। उनके पहली बार फोन करने से पूर्व हम एक दूसरे को जानते तक नहीं थे।
मेरे साथ ऐसे एक नहीं अनेक किस्से हैं।
एक और घटनाक्रम की ओर ले चलता हूं। पहले ही स्पष्ट कर दूं साहित्यिक विकास के क्रम में मेरे रिश्तों का विकास भी निरंतर हो रहा है। बड़ी बात तो यह है ९९% रिश्ते आज भी आभासी ही हैं। मगर उन रिश्तों में पितृत्व ही नहीं मां,बहन, बेटियां, बड़े, छोटे भाई ही और मार्गदर्शक और मित्र भी हैं। और इन रिश्तों में बहुत से औपचारिक हैं तो कुछ अनौपचारिक और भावनात्मक भी। जिनसे हमारे साथ वास्तविक रिश्तों सा व्यवहार है। विश्वास नहीं करेंगे मगर डांट भी खाता हूं, तो डांटने का अधिकार भी मिला है। रिश्तों की मर्यादा के अनुरूप लड़ना झगड़ना भी हो ही जाता है। साहित्य के अलावा पारिवारिक दु:ख सुख पर बातें और यथा संभव एक दूसरे से विचारों, जानकारियों, समस्याओं और मार्गदर्शन संबंधी बातें भी होती ही रहती हैं।
बड़प्पन की दिल को छूने वाली चर्चा जरूर करना चाहूंगा। हमारे मामा श्री विपिन कुमार श्रीवास्तव जी (सेवानिवृत्त) के विभागीय वरिष्ठ श्री रामचन्द्र श्रीवास्तव जी(सेवानिवृत्त) हैं, जो मामा जी को छोटा भाई मानते हैं, बेटे जैसा ध्यान भी रखते हैं, हर सुख दुख में हमेशा साथ खड़े रहते हैं। हम भाई बहन भी उन्हें मामा कहते हैं। संयोग से हमारे घर से बमुश्किल २०० मीटर दूर उनके निजी मकान है। आज हम अपने जिस निजी मकान में हम रहते हैं, वो जमीन भी उनके सौजन्य से ही मिली थी। जितने पैसों में बात तय हुई थी, उसमें भी ५००० रुपए कम देना पड़ा। ये वर्ष २००१ की बात है। जब तक हमारी मां जीवित रहीं,तब तक एक जिम्मेदार भाई की तरह हर ८-१० दिन पर उनका हाल चाल लेने जरुर आते रहे। रास्ते में मिलते तो मां का हाल जरुर पूछते। उनके स्वभाव की बड़ी विशेषता यह थी कि बच्चा हो या बड़ा, बूढ़ा हो या जवान, जब तक वो नमस्ते, प्रणाम करता, उससे पहले ही वे स्वयं उसे हाथ जोड़कर नमस्ते कहते रहते हैं। मैं तो शर्मिन्दा महसूस करता हूं। थोड़ा थोड़ा मैं भी उसी ढर्रे पर चलने का प्रयास करने लगा हूं। हमारे मामा जी ने तो इसे आत्मसात भी कर लिया है। इसी तरह कई उम्र में बड़े होकर भी बड़ा मान देते हैं, क्योंकि वो उनका स्वभाव और बड़प्पन है। तो कई को डांट खाकर भी संतोष होता है क्योंकि वे मानते हैं कि इस डांट के पीछे उन्हीं का बेहतर छुपा। तो कई ऐसे भी हैं जो रिश्तों के नाम पर स्पष्ट स्वार्थ साधते रहते हैं, मगर हम आप रिश्तों की मर्यादा में बंधे रहकर खुद विवश हो रिश्ते निभाते ही रहते हैं।
मेरा मत है कि ऐसे सभी आभासी संबंधों को वास्तविक धरातल पर देख पाना शायद ही जीवन में संभव हो सकेगा। मगर जो खुशी मिलती है, उसे शब्दों में बयान कर पाना संभव नहीं है। बड़े होने का सम्मान मिलता है तो छोटे होने का दुलार भी। आभासी रिश्तों के बाद भी हम एक दूसरे के साथ रिश्तों को भरपूर महत्व भी देते हैं। मैं खुद उनमें से कई के कदमों में सिर झुकाता हूं, तो बहुत से मुझे भी झुकाते हैं। इसमें अधिक संकोच नहीं होता। बस भाव और भावनाएं होनी चाहिए।
वहीं कुछ ऐसे भी रिश्ते हैं जो उम्र में बड़े होकर भी सम्मान देते हैं तो कुछ छोटों को भी बड़ों जैसा सम्मान देने का भाव स्वमेव उछलकूद करता है।
ऐसे ही आभासी रिश्तों से जुड़ी एक बड़ी बहन हैं, जो मेरे प्रणाम, नमस्ते कहने पर संकोच महसूस करती हैं। मगर प्यार, दुलार, मार्गदर्शन बड़ी बहन ही नहीं मां जैसा ही देती हूं। जबकि एक छोटी बहन से जब पहली बार वास्तविक रुप से मिला और उसने मेरे पैर छुए तो ,उसके लिए मेरे मन जो भाव जगा मैं खुद हैरान हूं। छोटी तो है परंतु वो मुझे बहन ही नहीं माँ और बेटी जैसी लगी। और मैं उसके पैर छूकर उसे सम्मान देने के प्रति आज भी उत्सुक रहता हूं। आज हम साहित्यिक और आभासी दुनिया से आगे पारिवारिक रिश्तों को निभा रहे हैं। जिसमें बड़े होने का यदि मुझे एहसास होता है, तो छोटी होने का फायदा उठाना उसका जैसे जन्मसिद्ध अधिकार है।
विश्वास करना कठिन ही नहीं समझ से परे भी है कि ऐसे रिश्ते आखिर यूं बन कैसे जाते हैं, तब एक आत्मबोध होता है, ऐसे रिश्ते बनते नहीं, बल्कि पूर्व कर्मों, जन्मों से संबंधित होते हैं।जो वर्तमान में हमारे साथ किसी न किसी रूप में जुड़ ही जाते हैं। यह अलग बात है कि इसके लिए कोई न कोई माध्यम खुद बखुद बहाना बन जाता है।
ईमानदारी से सोचने पर महसूस ही नहीं आत्मबोध भी हो ही जाता है कि अंजान रिश्ते यूं ही मूर्त रूप नहीं ले लेते। पिछले जन्मों के संबंध ही नये रुप में जीवंत हो उठते हैं।मगर हम इसे ईश्वर की कृपा, व्यस्था मानकर आगे बढ़ते ही रहने को अपना कर्तव्य समझते हैं और रिश्तों की महत्ता को स्वीकार कर आगे बढ़ते ही रहते हैं।

सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा उत्तर प्रदेश
८११५२८५९२१
© मौलिक, स्वरचित

Language: Hindi
Tag: लेख
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