#आत्मघात
🔥 #आत्मघात 🔥
माँ दुखी हैं। माँ बहुत दुखी है। सीलन और दुर्गंध माँ के कक्ष में पसरी पड़ी हैं। पवन सहमी-सहमीसी उस कक्ष में आती तो है परंतु, लौट नहीं पाती। उस कक्ष से बाहर निकलने का कोई छिद्र, कोई मोखा अथवा कोई वातायन है ही नहीं। माँ की स्मृति में सूरज की धुंधली-सी छाया अंकित है परंतु, सूरज के साक्षात् दर्शन को जैसे युग बीत चुके। दियाबाती के बिना जब आसपास पसरी हुई निस्तब्धता में कुछ-कुछ दीखने लगता है तब वो जान जाती है कि सूरज देवता इस ओर से उस छोर जाने को निकल पड़े हैं। लेकिन, चंद्रमा की तो चाँदनी भी जैसे इधर की राह भूल गई लगती है। सूरज अपनी किरणों को समेटकर जब लौट जाते हैं तब उस कक्ष में अंधेरे से लड़ते हुए दीपक के प्रकाश में पता ही नहीं चलता कि यहीं कहीं चंद्रमा की रश्मियाँ भी छिटकी पड़ी हैं।
ऐसे प्राणघातक वातावरण और दारुण दशा में जी रही माँ का दूध पीनेवाले, उनकी संतानें और फिर उनकी संतानें कैसा जीवन जिएंगी यह सोचना ही अत्यंत भयप्रद है।
ठीक ऐसे ही प्राणघातक वातावरण और दारुण दशा में वो गाय-भैंस जी रही हैं, जिनका प्रकृतिप्रदत्त जीवन छीन लिया गया है, जिनका कृत्रिम गर्भाधान किया जाता है, जिनकी संतानें उनसे छीन ली जाती हैं, जिनका दूध हमारे जीवन की ऐसी अनिवार्यता हो गया है जैसे जल, जैसे वायु, जैसे प्रकाश, जैसे धरती और जैसे आकाश। हमारा कल, हमारी संतानों और फिर उनकी संतानों का कल कैसा होगा? यह कटु सत्य है कि यदि इस स्थिति में परिवर्तन नहीं हुआ तो शैथिल्य, आलस्य, दुर्बलता, अनिश्चितता और मानसिक विकलांगता स्थायी रूप से हमारा स्वभाव होंगे।
नगरों में कुत्तापालन की छूट तो है परंतु, गाय नहीं पाल सकते। स्थानीय प्रशासन द्वारा पशुपालन का व्यवसाय करनेवालों को इस निर्दयता से खदेड़कर नगरों से बाहर किया जाता है जैसे सभ्यसमाज का एकमात्र कोढ़ वही हों।
नगरों के समीपस्थ गाँवों में पशुपालन क्षेत्र निश्चित करके पशुपालकों को भूखंड आवंटित करने के उपरांत स्थानीय प्रशासन ने जैसे गंगास्नान कर लिया है। उस क्षेत्र में किसी भी प्रकार की जनसुविधा देने की नित नई तिथियां घोषित की जाती हैं। उन तिथियों के बीत जाने पर नई तिथियों की घोषणा होती रहती है, बस।
अनेकत्र वहाँ गलियों में कहीं टखनों तक और कहीं घुटनों तक पशुमूत्र व गोबर की दलदल का साम्राज्य है। वातावरण में घुलमिल चुकी विषैली गंध के बीच अपनी संतानों से बलात अलग की गईं, जो उनका दूध पिया करते हैं उन मानवों के स्नेहिलस्पर्श से वंचित गाय भैंस के हृदय से उठती हूक संपूर्ण मानवजाति के विनाश का कारण न हो जाए कहीं।
वर्तमान तथाकथित आधुनिक वैज्ञानिक भी जान चुके हैं व मान चुके हैं कि ओज़ोन छिद्र से अधिक मारक वो चीखें हैं जो पशुवध के कारण वातावरण में फैलती जा रही हैं। फैलती ही जा रही हैं।
गाँवों में गोचरान की भूमि अब लड़ने-भिड़ने का एक और अवसर मात्र होकर रह गई है। वहाँ दुधारू पशु खूंटों से बंधे रहने को अभिशप्त हैं।
निकट भविष्य में इन स्थितियों में सुधार होने के कोई भी लक्षण दीख नहीं रहे। क्योंकि बड़े आसनों को बौने लोगों ने हथिया लिया है। लोकतंत्र के इस अनचाहे उपहार के कारण हम निरंतर आत्मघात की ओर बढ़ रहे हैं। लेकिन, इन पंक्तियों के लेखक का उद्देश्य क्या इतना ही है कि आपको हतोत्साहित किया जाए, भयभीत किया जाए?
आइए, कुछ समाधान मैं खोजता हूँ कुछ सुझाव आप दें कि रात उजियारी हो और दिन न्यारा हो।
प्रथमतः, गोचरानभूमि को पुनर्जीवित करें। इसके सीमांकन को चारों कोनों पर एक-एक पीपल, प्रत्येक पीपल के दोनों ओर एक-एक नीम व इसके बीचोंबीच एक बरगद का पेड़ लगाएं। गोचरान में आम, अमरूद, जामुन, शहतूत, आँवला, नींबू, लसूड़ा, इमली, बेल व बेर का एक-एक पेड़ भी लगाएं। प्रतिवर्ष सभी प्रकार के पेड़ों की संख्या में एक-एक की बढ़ोतरी करते जाएं।
द्वितीय, गोचरानभूमि के इस ओर ऊर्जाक्षेत्र की स्थापना करें। इसमें बड़े आकार का गोबरगैसप्लांट स्थापित करें। जहाँ से छोटे आकार के गैस सिलेंडरों में गैस भरकर नगर में उनका वितरण किया जाए।
तृतीय, अत्यल्प दामों में ऐसे यंत्र उपलब्ध हैं जिनसे विभिन्न आकार के उपले बनाए जा सकते हैं। ऐसे यंत्रों द्वारा निर्मित उपले ईंटभट्ठों, शवदाहगृहों व औद्योगिक भट्ठियों में वितरण की व्यवस्था की जाए।
चतुर्थ, अधिकतम चार फुट ऊंचे चार हौद बनाए जाएं जो आपस में जुड़े हुए हों। उन चारों में तीन-साढ़े तीन फुट पर लगभग छह इंच का एक छिद्र रखा जाए। तब एक हौद में प्रतिदिन गोबर, घासफूस व थोड़ी मिट्टी डालना आरंभ करें। लगभग एक महीने के उपरांत जब एक हौद भर जाए तब उसमें केंचुए छोड़ दिए जाएं।
अगले एक महीने में दूसरा फिर तीसरा और इसी प्रकार चौथा हौद भी भरा जाए। केंचुए अपने भोजन के लिए भूमि में तीन-चार फुट तक नीचे जाकर ऊपर आया करते हैं। इस प्रकार वे लगभग तीन महीने में एक हौद के गोबर को खाद में परिवर्तित करके बीच में छोड़े गए छिद्र से दूसरे हौद में निकल जाएंगे।
पंचम, पशुमूत्र को मिट्टी के घड़े में डालें। उसमें नीम, आक अथवा भांग आदि के पत्ते डालकर भूमि में दबा दें। कुछ समय के उपरांत यह श्रेष्ठ कीटनाशक उपलब्ध होगा।
विशेष : गोचरानभूमि व ऊर्जाक्षेत्र में किसी भी प्रकार के यांत्रिक वाहन का प्रवेश निषिद्ध हो। वहाँ का सभी कार्यव्यवहार बैलगाड़ी अथवा भैंसागाड़ी से किया जाए।
इस ऊर्जाक्षेत्र का दायित्व गाँववासियों में से किसी अथवा किन्हीं को सौंपा जाए।
★ स्मरण रहे कि जब किसान के बेटे को गोबर में से दुर्गंध आने लगे तब जान लें कि देश में अकाल पड़ने वाला है।
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२