आतंकवाद
आतंकवाद,
उफ़!
धागों की तरह उलझ गए हैं लोग
हिंसा के अभिनन्दन में
नहीं…नहीं…नहीं
शायद इसलिए कि
महान समीप्यपूर्ण एकता को छोड़
मृत्यु को गले लगा रहें हैं लोग
मैं पूछता हूँ-
आखिर तूने येसा किया ही क्यों ?
क्या मिलता है ?
आतंकवाद फ़ैलाने में-
क्या हुआ है तुम्हे ?
जो इस भीड़ में अपने पराये हो गए हो
चंद लम्हों की ख़ुशी
भाती नहीं क्या ?
अस्तु,
डूबती संध्या को
चुपके से रिझाओ
शांति मनाओ
पंकिल परिवेश से
समेट स्वच्छ माटी नम
दीप गढ़ो,
नेह भरो,
त्यागो मन के विभ्रम
पर मैं अपने को सुलझाऊ कैसे ?
जबकि विवश हैं हम अब भी,
हिंसा के अभिनन्दन में.
आतंकवाद को आतंक से
सुलझाने की कोशिश
किधर ले जा रहा है
शांति को.
कितना हास्यास्पद है
अशांति की टक्कर पर शांति रखकर
आतंकवाद कम करने का दावा करना.