आज भी ( ढूंढ रहे ) हैं
किसी बेगाने में हम अपनों को ढूंढ रहे हैं।
कब से खड़ी अब तो उम्र हो गई बड़ी।
सच कहती हूं अब तो सब कुछ खो रही हूं।
झूठे सपने, वक्त में ना निकले कोई अपने।
उम्र ,वक्त में निर्वाह होगा कैसे
वो आशियाना ढूंढ रही हूं।
किसी बेगाने मे हम अपनो को ढूंढ रहे हैं।
कब से खड़ी अब तो उम्र हो गई बड़ी।
चाहत के पास दिल खड़ी हैआज भी
उस नजर ने ये नजरिया दिया हैं आज भी_ डॉ. सीमा कुमारी ,
बिहार,भागलपुर, दिनांक-21-3-022की मौलिक स्वरचित रचना जिसे आज प्रकाशित कर रही हूँ।