आज बाजार खरीदार पुराने निकले
ग़ज़ल
आज बाजार खरीदार पुराने निकले।
खोटे सिक्के हैं जो उनके वो चलाने निकले।।
अपनी ढपली वो लिये राग सुनाने निकले।
कुछ तमाशाई फ़क़त शोर मचाने निकले।।
ये जो जुगनू तो ग़ज़ब के ही सयाने निकले।
जल के मर जाएंगे सूरज को बुझाने निकले।
जिनका अब तक ही नहीं दुनिया में वजूद अपना।
मेरी हस्ती भी वही लोग मिटाने निकले। ।
दाग़ अब ढूढ़ रहे अंधे मेरे चेहरे में।
और गूँगे मेरी आवाज़ दबाने निकले।।
हो गये हैं वो ज़मीदोज़ वही पर सारे।
मेरी बुनियाद के पत्थर जो हिलाने निकले।।
खाली निकले हैं निशाने तो सभी उनके ही।
जो कमां हाथ लिये तीर चलाने निकले।।
जो मेरे क़त्ल में शामिल थे मेरे क़ातिल थे।
मेरी मैय्यत में वही काँधा लगाने निकले।।
की जो तफ्तीश है मैने तो ये मालूम हुआ।
जो भी दुश्मन थे मेरे दोस्त पुराने निकले।।
याद माज़ी को किया करते हैं खुश होते हैं
भूल जाते हैं कि अब उनके ज़माने निकले।।
हो गया ग़र्क़ सफीना ही अनीस अब उनका।
मेरी कश्ती जो समंदर में डुबाने निकले।।
– अनीस शाह “अनीस”