आज बहुत रोने का मन है
आज बहुत रोने का मन है
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भीतर से मैं टूट चुका हूँ,
आज बहुत रोने का मन है।
दूर कहीं बस्ती से जाकर,
जी भर कर सोने का मन है।
बहुत देख ली सबकी यारी,
रास न आई दुनियादारी,
झूठे रिश्तों की माया में,
मतलब की है मारा-मारी,
अपना दुख अपना है लेकिन,
और नहीं ढोने का मन है-
दूर कहीं बस्ती से जाकर,
जी भर कर सोने का मन है।
सोच रहा हूँ कुछ दिन तक मैं,
किसी शख्स का मुख ना देखूँ,
मानव निर्मित किसी वस्तु का,
पल भर का भी सुख ना देखूँ,
जो कुछ है दुनिया में अपना,
सबकुछ अब खोने का मन है-
दूर कहीं बस्ती से जाकर,
जी भर कर सोने का मन है।
मैं बोता हूँ फूल हजारों,
उग आते हैं शूल हजारों,
मेरे उर में फैल चुके हैं,
चारों तरफ बबूल हजारों,
काँटों का है बिस्तर मेरा,
अब काँटा होने का मन है-
दूर कहीं बस्ती से जाकर,
जी भर कर सोने का मन है।
कद्र नहीं मेरा है कोई,
नित नित अपमानित होता हूँ,
भोलापन मेरी कमजोरी,
भोलेपन में सब खोता हूँ,
ग़म के केवल दाग मिले जो,
मिटे नहीं धोने का मन है-
दूर कहीं बस्ती से जाकर,
जी भर कर सोने का मन है।
– आकाश महेशपुरी
दिनांक- 20/06/2019