आज फिर एक जान गई
आज फिर एक जान गई,
किसे फर्क पड़ता है,उसके
अलावा जिसकी जान गई.
ये जिद्द है धार्मिक लोगों की,
कण कण में भगवान में है..
लेकिन उसमें नहीं है जिसने
बेअदबी की, चिंहित मूर्धा
मील के पत्थर को छूने की.
बोलती होंगी तुम्हारी प्रभुसत्ता में स्थापित मूर्तियां,
दिखाई देता क्यों नहीं तुम्हें वो सत्ता
जो हर जीव की अपनी-२ है.
तुम कौन हो दण्डित करनेवाले.
कहाँ गई वो, तुम्हारी प्रभुसत्ता..
जिसके बिन पंचभूत थम जाते है.
जिंदा डूब जाता है,मुर्दा तैरता है.
अ आदम, हे मनुष्य, तू मन से तोल
घूंघट के पट खोल,और दर्शन कर..
वो तू ही है, वो तू ही है, तू ही है, तू.
जो जनक है, पालक है, विनाशक भी.
डॉक्टर महेन्द्र सिंह हंस