आज के नौजवान
आज के नौजवान इमारत के ऊपर इमारत बना रहे,
बिना नींव इस पर अपना नया आशियाना बसा रहे I
जिस डाल पर बैठे उसी की डाल को काटने में लग गए ,
सफ़ेद चादर ओढकर पेड़ को ठिकाने लगाने में लग गए,
जड़ो में गड्डा खोदकर उसको तार-तार करने में लग गए ,
पुरखों को भुला कर एक नया किस्सा बताने में लग गए I
आज के नौजवान इमारत के ऊपर इमारत बना रहे,
बिना नींव इस पर अपना नया आशियाना बसा रहे I
जिस मिट्टी ने उन्हें बड़ा किया उसे गर्त में ले जाने लगे,
माँ – बाप के सपनों को चकनाचूर होते हुए देखने लगे,
दूसरे के दिए रंगों से अँधेरे भविष्य का रंग खेलने लगे ,
नए-२ कामों से ”जीवन की किताब” खुद लिखने लगे I
आज के नौजवान इमारत के ऊपर इमारत बना रहे,
बिना नींव इस पर अपना नया आशियाना बसा रहे I
माता–पिता ने बड़ी नांजो से तुझे इस जग में चलना सिखाया,
“राज” उनके अरमानो को काँटों के सौदागर को बेच आया,
दूसरों के हाथों खेला तू जग के खेल को क्यों न समझ पाया?
अपने भविष्य को ताख पर रख कर क्या हासिल कर पाया ?
आज के नौजवान इमारत के ऊपर इमारत बना रहे,
बिना नींव इस पर अपना नया आशियाना बसा रहे I
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देशराज “राज”
कानपुर I