आज की बेटियां
चल रही हैं बेटियां
बदल रही हैं बेटियां
ठोकरें खाती हुई
सम्भल रही हैं बेटियां…
(१)
धर्म और समाज की
रस्म और रिवाज़ की
सारी हदों को लांघकर
निकल रही हैं बेटियां…
(२)
पंख अपने खोलकर
आकाश की बुलंदियां
जीते जी छू लेने को
मचल रही हैं बेटियां…
(३)
ताक़त के घमंड को
दौलत के पाखंड को
आज अपने बूटों तले
मसल रही हैं बेटियां…
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Shekhar Chandra Mitra
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