आज का मेहताब…
जन्म लेते ही, औरों का मोहताज था,
अपने दम से, न चलने का ढंग था जिसे।
जब जवानी का उसको, नशा चढ़ गया,
वो किसी को भी, कुछ भी समझता नहीं।।
अपने अपनो की, इज्जत की परवाह नहीं,
ना गुनाहों के अपयश का डर है जिसे।
रब के कानून को जो, कुचलता गया,
उम्र के कायदों को, समझता नहीं।।
ना तो स्नेह मन में, न सम्मान है,
सबका भगवान बनने की, ख्वाहिश जिसे।
चार दिन ज़िंदगी में, वो बढ़ क्या गया,
आदमी, आदमी को, समझता नहीं।।
ज़िंदगी एक दिन, खत्म होना ही है,
इस अटल सत्य का भी, पता है जिसे।
जाने किन शोहरतों पर उसे नाज़ है,
अपना अंतिम सफर खुद चलेगा नहीं।।
नफरतों से भरी है, फ़िज़ां हर तरफ,
प्रेम का एक दिया, है जलाना तुझे।
माँ, पिता की उम्मीदों का, मेहताब है,
रोशनी दे तिमिर क्यों, हटाया नहीं।।
– अशोक शर्मा
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