आज का विकास या भविष्य की चिंता
वर्तमान में विकास बहुत तेज गति से हो रहा है ।हिंदुस्तान विकसित देशों की तरफ बढ़ रहा है। विकसित देश और विकसित होने का प्रयास कर रहे हैं किंतु इस विकास पर विराम कहां लगेगा। वैसे तो परिवर्तन नैसर्गिक नियम है जो कल था उसका स्वरूप आज अलग है और जो आज है भविष्य में उसका स्वरूप भी बदलने वाला है। यह सार्वभौमिक तथ्य है चाहे भौतिक परिवर्तन हो या सांस्कृतिक परिवर्तन या विचारों का परिवर्तन ,सभ्यता का परिवर्तन किंतु यह परिवर्तन रुकेगा कहां। इस प्रश्न का उत्तर हो सकता है कि पृथ्वी के विध्वंस पर? जो बना है वह एक दिन नष्ट भी होगा किंतु कब नष्ट होगा? यह समय अंतराल ही मेरे विचार से विकास को निर्धारित करता है। इसे हम एक उदाहरण से देख सकते हैं। जिस प्रकार हम ताश के पत्तों से इमारत बनाने का प्रयास करते हैं बनाते जाते हैं बनाते जाते हैं किंतु एक समय ऐसा आता है कि वह उससे अधिक और नहीं बनती और जब वह चरम पर रहती है तब एकाएक धराड़ से गिर जाती है यदि हम इसी प्रकार भवन निर्माण करें मंजिल के ऊपर मंजिल बनाते जाएं अनेकों मंजिल बनाने के बाद एक समय तो ऐसा आएगा कि उसका संतुलन बिगड़ेगा और वह गिर जाएगी यदि हम इसी प्रकार विकास को ले। हम जितने तीव्र गति से विकास करते जाएंगे उसके विनाश का स्वरूप भी स्वत: ही पास आता जाएगा। फिर क्या? एक दिन विनाश तो निश्चित है। आज व्यक्ति बहुत तीव्र गति से अपना जीवन यापन करने का प्रयास कर रहा है हरसुख हर सुविधा बहुत जल्दी पाना चाहता है एक वयस्क व्यक्ति के सुख बचपन में प्राप्त करना चाहता है आविष्कार इन सुखों की प्राप्ति का ही परिणाम है किंतु विकास की एक सीमा भी तो है विकास ब्रह्मांड की तरह अनंत तो हो नहीं सकता। प्राकृतिक भंडार की भी एक सीमा है जब खनिज सीमित है भूमि सीमित है विकास भी सीमित होना चाहिए। अर्थात जितनी तेजी से प्राकृतिक साधनों का दोहन होगा उतनी ही तेजी से विकास होगा और जितनी तेजी से विकास होगा समझ लो हम अंत की तरफ भी उतनी ही तेजी से चल रहे हैं। क्योंकि मनुष्य का अहंकार के उतनी ही तेजी से विकसित हो रहा है आज लगभग आबादी शिक्षित है। किंतु फिर भी विश्व में टकराव की स्थिति क्यों उत्पन्न हो रही है क्योंकि शिक्षित सभ्य होता है और सभ्य व्यक्तियों में तो टकराव होना ही नहीं चाहिए किंतु फिर भी दुनिया जितनी अधिक शिक्षा की ओर बढ़ रही है टकराव उतने ही अधिक उत्पन्न होते जा रहे हैं। अर्थात ज्ञान का विकास भी एक निश्चित स्थिति के बाद विनाश की ओर अग्रसर हो जाता है। वर्तमान संदर्भ में तो ऐसा ही कहा जा सकता है युद्ध पहले भी लड़े गए। सभ्यता के लिए पहले भी टकराव होते रहे। वर्चस्व स्थापित करने के लिए पहले भी युद्ध होते रहे। इससे इनकार नहीं किया जा सकता। किंतु उस समय के अस्त्र शस्त्र और आज के अस्त्र शस्त्र में समय का अंतर है। और यह अंतर ही विकास है और यह विकास ही विनाश है। यही चिंता का कारण है इसे बहुत गहराई से समझना होगा।
-विष्णु प्रसाद ‘पाँचोटिया’
््््््््््््््््््््््््््््््््््््््