आज ,कल और कल की पत्रकारिता
मीडिया का वास्तविक कार्य है, सदियों के आर-पार देखना। एक दूरदृष्टिवेदता के रूप उन सभी पक्षों का एक तटस्थ विवरण प्रस्तुत करना जिसे सामान्य जनमानस के लिए समझना जटिल होता है।
मीडिया के इतिहास के पन्नो को पलट कर देखा जाए तो सबसे प्राचीन चित्र जो उभर के आता है, वह महाभारत काल के सुप्रसिद्ध श्री कृष्ण द्वैपायन व्यास द्वारा दिव्य दृष्टि प्राप्त संजय है ,जो महाभारत के युद्ध का आँखों देखा विवरण अपने राजा को सुनाते हैं।
संजय का उल्लेख जयसहिंता में मजबूत क़िरदार के रूप में नही हुआ ,वह एक उद्देश्यपूरक के रूप में उल्लेखित थें,किन्तु उनके कार्य में एक मौलिकता थी,जो उन्हें हमारी चेतना में स्थान दिलाती हैं ।
महाभारत के युद्ध का लाइव कवरेज़(आज की भाषा में)की जिम्मेदारी संजय की थी,यह एक दुष्कर कार्य था,विशेष रूप से उन परिस्थियों में जब आपका दर्शक नेत्रहीन और एकपक्षीय हो ।संजय में करुणा और समझ का गजब का समन्वय था ,उन्होंने सभी घटनाओं को बडी सहजता से समझा और महाराज को मौलिक सत्य सुनाया ,फिर वह राजमहल का जुआ हो या द्रोपदी का चीरहरण ,पांडवों का वनवास हो या 18 दिन का वो भीषण युद्ध।
उन्होंने सब कुछ देखा कौरव-पांडवों की सेना की 18 टुकड़ियां देखी ,युद्ध के मुख्य 18 सूत्रधार देखें,युद्ध के बाद शेष रह गये 18 योद्धा देखें,लेकिन सभी का विवरण वह पूरी ईमानदारी और निष्पक्षता के साथ देंते थे ।
संजय ,नेत्रहीन धृतराष्ट्र को आँखों देखी सुनाते थे ,कौरवों सेना का नुकसान और पांडवों की जयजयकार को वह समान भावों से प्रकट करते थे,इस दौरान उन्हें राजा के क्रोध और प्रेम दोनो को भोगना पड़ता था,जिसे वे सहर्ष स्वीकार करते थे,जो एक सूचना प्रेषक का प्रमुख और अनिवार्य गुण भी है ।
धृतराष्ट्र संजय से पूछते – संजय मैं किस बात पर हंसू और किस पर रोऊं,किसका समर्थन करू और किसका विरोध जताऊं.. मुझे बताओ संजय !
संजय सब कह देते थे बिना किसी भाव परिवर्तन किये फिर घटना प्रिय हो या अप्रिय।
संजय के कार्य की प्रासंगिता को वर्तमान परिपेक्ष्य में देखना अस्वाभाविक सा लगता हैं जहाँ एक तरफ़ संजय मतविहीन ,तटस्थ और कर्तव्यपरायण जैसे बड़े अलंकरणों से सुशोभित थे वही आज के तिलकधारी इन सभी उपलब्धियों के पास तक नही फटकते।
आज का पत्रकार स्वयं धृतराष्ट्र बन गया और जनता गांधारी ।पत्रकार अब केवल एंकर तक सीमित रह गया है, जिनका एजेंडा सिर्फ आर्थिक लाभ और नाम कमाने की कामना है। मुझे पूर्ण विस्वास है कि अधिकांश तो कुलदीप नैयर या गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे तो बनना तो चाहते होंगे लेकिन फिर उनकी निजी स्वार्थ , बाॅस का प्रेसर उनसे सब करवाने लगता होगा ।एक फ़िल्म में नवाजुद्दीन सिद्दीकी जी का डॉयलाग है कि ‘पहले तो मजबूरी में शुरू किया था अब इसमें मजा आने लगा है।’
इनके लिए बस एक लाइन है ज़ेहन में …
जो वक़्त की आँधी से ख़बरदार नहीं है,
वो कोई और ही होगा,कलमकार नहीं है।।
ये लोग पत्रकार नहीं, पक्षकार है। चूंकि स्वभावतः आंखों को रंगीनियत पसंद है,इसीलिए अधिकाधिक लोग इन्हें ही देखना चाहते है और अंततः टीआरपी भी इन्हें ही मिलती है
【3 मई अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता स्वतंत्रता दिवस 2020】