आज अकेले ही चलने दो।
आज अकेले ही चलने दो।
पथ परिचित है पीर पुरानी,
पर उसमें कुछ बात अजानी,
आज न तुमसे बांट सकूंगा,
अनजाने दुख की हैरानी,
मेघों से अच्छादित नभ में
आज अकेले ही ढलने दो ,
आज अकेले ही चलने दो।
अपना घर ही अपना जग है,
कुछ लगता पर आज अलग है,
जाने क्यों अनमनी आ गई,
जबकि सबका साथ सुलभ है,
भरी दुपहरी के आंगन में,
आज अकेले ही जलने दो,
आज अकेले ही चलने दो।
शीत लहर सी चलती मन में,
भीतर कुहरा सा छाया है,
संग तुम्हे मैं कैसे ले लूं,
मन विचलित है पगलाया है,
हिम की निर्जन नग्न गली में,
आज अकेले ही गलने दो,
आज अकेले ही चलने दो।
कुमार कलहंस।