आजी (2)
समय के साथ मैंं और पदमा अब कुछ-कुछ बदल गये थे ।पदमा बहुत गंंभीर हो गई थी। नंंदा भी अब कम मस्तियाँँ किया करती ।बेरहम समय ने मेरी सहेली के परिवार की मुस्कुराहटोंं को नजर लगा दी थी। भाभी कम बोलती कम हँँसती। रेखा अब भी चंंचला ही थी ।समय उसके बचपन को न बदल सका था।बदलाव की गहरी लकीरेंं आजी के चेहरे पर सिमट आई थी।धुंंधली होती आँँखोंं की रोशनी मेंं इतना अंंधकार आ चुका था कि मुझे उनकी आँँखोंं मेंं सिर्फ आँँसु ही दिखाई देते थे।
लोग आजी को कम ही छेड़ते थे अब, पर वो भी पहले की तरह अब नाराज नही होती थी। कभी मन मेंं आता तो पुछ बैठती “लोक मला हेमामालिनी का म्हणतातंं” “मी काय तिझी सारखी दिसते व्हय” ,”काही पणं मसखरी करतात ही मुले”।मैंं हौले से मुस्कुराकर कह देती “ती चित्रपटातली ,पण आमची हेमामालिनी तूच आहे ग” मेरा मराठी वाक्य सुनकर वह कह उठती”शिकलीस बाई आमची भासा ” “हो ग आजी”
एक बार मैंं काफी समय के लिए अपनी नानी के गाँँव चली गई। वहाँँ माहौल अलग था ।अच्छा लगा था ।घर जब वापस आई तो सोचा चलो आजी का हालचाल पूछते है और पदमा को गाँँव के किस्से सुनाउँँगी।पर जब घर मेंं दाखिल हुई सन्न रह गई ।मधुकर की तस्वीर के बगल मेंं रेखा की तस्वीर लगी थी।और उसपर हार लटक रहा था।
दो सप्ताहोंं मेंं पीछे से सब बदल गया था ।रेखा कही गुम हो चुकी थी।उसकी तबीयत अचानक बिगड गई थी। अच्छा इलाज न हो सका था। मुझे देखकर भाभी कुछ ना बोली मेरे कंंधे पर हाथ रखकर काम पर जाने के लिए निकल गई ।पेट की भूख लोगोंं के मरने के बाद भी जिंंदा तो रहती ही है।
थोडे समय के बाद हमने घर बदल दिया।हम कही और जाकर रहने लगे।मेरा तब जी बहुत कचोटा था।मगर बस मेंं कुछ ना था।मेरी सहेली छूट रही थी और आजी भी तो।
मैंं कभी-कभी मिलने चली जाती थी उनसे ।चेहरे सभी के शांंत हो चले थे।हृृदय मेंं पर सब के एक सूनापन सा छाया हुआ था।फिर सब व्यस्त हो गये अपने-अपने जीवन मेंं। आजी काफी समय तक जिंंदा रही सुना था।
आजी आज भी मेरे ज़ेहन मेंं ज़िन्दा है ।उसी “हेमामालिनी”वाली छवि के साथ।
#सरितासृृजना