आजादी एक और
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सारे शब्द जो कैद थे किसी एक मुट्ठी में
हो गया है बंधन मुक्त।
सहला सके और देख सके भर नजर
एकबार फिर।
भिगो सके इसका सम्पूर्ण बदन चुंबनों से
छू सके इसका अस्तित्व स्वतन्त्रता–युक्त।
उग आए थे इन दीवारों पर अनेक कान
संगीनें ताने
हमारे अपने घरों में बेपनाह।
खड़े-खड़े ही पकड़कर एक-एक कान
निकाल सके।
और पुनर्प्रतिष्ठित कर सके
मर्यादा के सारे श्वेत श्लोक
मिटा सके सारे ही मारक अंतर्दाह।
आदमी, आदमी न रहा था
हो गया था जैसे बकरियाँ और भेड़।
चाहे जिधर हांक दो।
जैसे शक,संदेह और विद्रोह का पर्याय।
हो सके हम आदमी फिर से पूरी आदमीयत में
मन और देह से।
तोड़ सके प्रथम सर्ग में ही
ऊँचे बहुत ऊँचे तक खींचे हुए सारे ही मेड़।
महावत ने भालेनुमा अंकुश से ऐसे गोदा कि
कवि कि कविता या कि आजादी के छंद
रह न सके थे निरंकुश।
हो गए थे वे मूक अथवा लगे थे
करने अवांक्षित व झूठ की प्रशंसा।
किन्तु महावत की निरंकुशता हमने तोड़ी।
सारे ही सुर ,तान,लय एक अंधी गुलामी से छूटी।
एक नए युग की संरचना को देने सहयोग
उठ सके हम एक बार फिर
कह सके निर्भय प्रशंसा को प्रशंसा।
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1977/पुनर्लिखित/ अरुण कुमार प्रसाद