आज़ादी की उलझन
मैं ७५ बरस की हो गई हूं ,
मगर अभी भी है एक उलझन ?
मुझ पर दावे तो बहुतों ने किए ,
मगर मेरा असली दावेदार है कौन ?
जिसने भी मुझे पाया अब तक ,
मेरा गलत फायदा उठाया।
निरंकुश होकर जीया वो ,
मुझे मोहरा बनाकर चलाया।
निरंकुश हुए इतने की ,
देश की सूरत ही बदल दी ।
जो कल्पना की थी मेरे बापू ने,
वो तस्वीर ही तोड़ कर रख दी ।
मेरा पूंजीपतियों और धनिक वर्गों,
भी अनुचित लाभ उठाया है।
सोने की चिड़िया कहा जाने वाला ,
मेरा देश गरीब और बदहाल हुआ है।
मुझे आज की पथभ्रष्ट युवा पीढ़ी ने
हथियार ही बना डाला है।
वो मेरी मांग बड़े जोर शोर से करते है ,क्यों?
इनका मकसद देश और समाज हित में नहीं होता।
इनकी देशद्रोह और संस्कार हीनता ने ,
पूरे समाज को दूषित कर डाला है।
मैं अभी तक आम जनता तक ,
पहुंच ही नहीं पाई हूं।
मैं परिश्रमी किसानों ,श्रमिकों और ,
दलित वर्ग , शोषित वर्ग आदि ,
यह समाज के कमजोर वर्ग है ।
क्या मैं इनकी हो पाई हूं ?
मैं नारी जाति को भी कुछ नहीं दे सकी ,
जो समाज के कट्टर पंथियों के जुल्म सहती है।
मैं इनकी रक्षा भी नही कर सकी ,
इसीलिए ये वासना के भूखे भेड़ियों की बेहशीपन ,
की शिकार होती है ।
मुझ पर हक तो वीर सैनिकों का भी बनता है।
परंतु यह मुझ पर हक जताना नही चाहते।
यह शूर वीर जीते है देश पर कुर्बान होने के लिए ,
इनके लिए कर्तव्य ही सबसे अहम होता है।
ये मुझे नही चाहते ।
अब मैं क्या करूं ? बड़ी उलझन में हूं।
आखिर मैं हूं किसकी ? कौन है मेरा दावेदार ?
क्योंकि मुझे जो भी इंसान पाएगा ,
वो मेरा गलत फायदा ही उठाएगा।
क्या कोई ऐसा आदर्श इंसान मिलेगा मुझे ,
जो मेरा उचित लाभ उठाएगा।
जो मेरे देश और समाज के हित में होगा ।
मैं अब तक उसी की प्रतीक्षा कर रही हूं ,
जो मेरा सही दावेदार होगा ।