आग ..
आग ..
सहमी सहमी सांसें
बेआवाज़ आहटें
खामोशियों के लिबास में लिपटे
कुछ अनकहे शब्द
पल पल सिमटती ज़िदंगी
जवाबों को तरसते
बेहिसाब सवाल
शायद
यही सब था
इस हयाते सफ़र का अंजाम
लम्हे ज़िदंगी से अदावत कर बैठे
ख़्वाब
आग के साथ सुलगने लगे
अभी तो जीने की आग भी
न बुझ पायी थी
कि मौत की फसल
लहलहाने लगी
इक हुजूम था
मेरे शेष को
अवशेष में बदलने के लिए
नाज़ था जिस वज़ूद पर
वो ख़ाक हो जाएगा
आग के साथ मिलकर
आग हो जाएगा
बशर फिर भी न कुछ समझ पायेगा
मरघट में जलाकर
फिर जलने के लिए
दुनिया में चला जाएगा
कभी रिश्तों की आग जलाएगी
कभी पेट की आग में झुलस जाएगा
जलते जलते
अपने अंजाम पे पहुँच जायगा
दुनियावी आग से शायद
जीत भी जाए बशर
मगर
मरघट की आग से हार जाएगा
आग से मिलकर
वो आग हो जाएगा।
सुशील सरना