आग जलती ही रहेगी
आग जलती ही रहेगी
हवाएं भी न रुकेंगी
सूख करके तन चुकी जो
डालियाँ भी न झुकेगी
यह स्वतः पर एक दिन
कटकर रहेगा
आत्मा का बोझ जो
तुम ढो रहे हो !
जीर्ण पत्ते सब झरेंगे
मौत के मुँह में खड़े हैं
किंतु फिर भी जूझने को
उम्र के पीछे पड़े हैं
यह घना कोहरा है अब
छँटकर रहेगा
जिसे लेकर रात दिन
तुम रो रहे हो !
सूर्य से कब तक लड़ेगा
अँधेरे में दम नहीं है
यह नदी बरसों पुरानी
सागरों से कम नहीं है
है प्रमादी पुञ्ज यह
हटकर रहेगा
जिसकी मीठी नींद में
तुम सो रहे हो !
ये न समझो कि जो तुमने
रच लिया वो ही चलेगा
समय का हिमगिरी खड़ा है
यह निरन्तर ही गलेगा
भूमि में गिरते ही यह
फटकर रहेगा
चिर सृजन का बीज जो
तुम बो रहे हो !
✍️सतीश शर्मा