आखिर तुम भी तो एक पुरुष ही हो न
कितनी आसानी से कह दिया था तुमने
सब कुछ ठीक तो है
पर तुम भी अच्छी तरह जानते थे
कुछ भी तो ठीक नहीं था
जब कोई अंदर ही अंदर
दर्द से कराह रहा हो
तो सब कुछ ठीक कैसे हो सकता है
यदि कोई खून के आँसू रो रहा हो
तो सब कुछ ठीक कैसे हो सकता है
अगर जमाना मिलकर
सच्चाई को दबाना चाह रहा हो
तो सब कुछ ठीक कैसे हो सकता है
यदि कोई हर पल खुद को साबित करने
अपनों से ही लड़ रहा हो
तो सब कुछ ठीक कैसे हो सकता है
पर फिर भी
इतना सब कुछ होने के बाद भी
सब कुछ जानने के बाद भी
तुम्हारे लिए तो
सब कुछ ठीक ही था
मैं तुम्हारे इस नजरिये के लिए
तुम्हें कतई दोष नहीं दूंगी
तुम्हें गलत बिलकुल नहीं कहूँगी
आखिर तुम भी तो
उस भीड़ का ही हिस्सा हो
उनसे अलग बिलकुल नहीं
फिर तुम उनसे अलग
कहाँ सोच सकते हो
आखिर तुम भी तो
एक पुरुष ही हो न
लोधी डॉ. आशा ‘अदिति’
बैतूल