आखिर तुम कब आओगे
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मेरे नयन के चांद सितारे ,
इस घर-आँगन के उजियारे।
बुढापे के एक मात्र सहारे ,
घर लौट के आजा, ओ मेरे प्यारे।
कितने ही वर्ष बीत गये हैं,
कब आओगे तुम, राहों में बैठे हैं।
आखिर तुम कब आओगे…..
निगाहें पथरा-सी गई है,
आँखें मेरी धुँधली-सी,
इक तेरे आने की इन्तजार में,
चुप टकटकी लगाये बैठे हैं।
आखिर तुम कब आओगे…..
मेरी ना सही, अपनी माँ की सुन,
जो कई सपने सिर्फ तेरे लिए बुन,
इक तेरे आने की उम्मीद में
दिल में आस लगाए बैठी हैं।
आखिर तुम कब आओगे…..
अपने सूने आँगन में
सदा ढूंढती रहती है तुम्हें।
जो अपनी बाहों के झूले में
झूलाया करती थी तुम्हें।
वही ममता भरा आंचल
तेरी राह में बिछाये बैठी हैं।
आखिर तुम कब आओगे…….
अपनी ममता भरी लोरी
जो तुम्हें सुनाया करती थी।
जो अपनी हिस्से की रोटी भी,
तुम्हें खिलाया करती थी।
बचपन की तेरी हर याद को,
अपने दिल में सजाये बैठी हैं।
आखिर तुम कब आओगे…..
अँगुली पकड़ कर कभी,
चलना सिखाया था तुम्हें।
चलो कदम-दो-कदम
साथ में तुम भी तो मेरे।
वीरान-सी इस आशियाना में,
तेरे कदमों की एक आहट पर
अपने कान को लगाये बैठी हैं।
आखिर तुम कब आओगे…..
तुम दूर हो ही नहीं लगता है,
अब लगता है कि अभी आ जाओगे।
जिन्दगी का सफर खत्म होने को है,
बाँकी चंद साँसों को रोक कर,
धड़कनों को थाम कर बैठे हैं।
आखिर तुम कब आओगे…..
????—लक्ष्मी सिंह ?☺