आखिर क्यों
लघुकथा
शीर्षक – आखिर क्यों
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‘पापा’ ,मुझे दहेज के पच्चीस लाख रुपये चाहिए शादी से पहले,
-बेटी रमा ने संजय से कहा
– ‘क्यों मजाक कर रही हो बेटी, तेरी शादी बहुत बड़े घर में होने वाली है किस बात की कमी हे वहा पर, ओर फिर तेरा होने वाला पति भी तो बहुत चाहता है, उन लोगों ने भी दहेज के नाम पर कुछ नहीं मांगा, आखिर पुराने रिश्तेदार जो ठहरे ‘,,,,
– ” नहीं पापा, मुझे चाहिए, मतलब चाहिए, वरना मै शादी नहीं करूंगी’
– “तेरा दिमाग तो सही है, मै इतनी बड़ी रकम कहाँ से लाऊँगा ‘
– ‘ जहा से भाई के विजऩेस के लिए आई थी ‘
– “बाप बेटी में क्या खिचड़ी पक रही है? – रमा की माँ सरिता ने पूंछा,
– ‘ कुछ नहीं तुम्हारी बेटी का दिमाग खराब हो गया है ‘
– ‘ नहीं पापा, मेरा दिमाग खराब नहीं हे मै तो बस अपने हिस्से का हिसाब मांग रही हूँ ‘
– ‘ हिसाब मतलब ‘
– ‘ मतलब साफ है पापा, बचपन से मै देखती आ रही हूँ, भाई की हर जरूरत पूरी की आपने, चाहे स्कूल हो, चाहे खिलौने, कॉपी किताब, सायकिल, स्कूटर, ओर अब मनमाना विजऩेस ,,,,, और मेरे लिए,,,, सिर्फ माँ के वही शब्द- कि बेटी तुम्हें पराए घर जाना है, शादी में दहेज देना पड़ेगा, तुम्हारी जरूरते पूरी नहीं कर सकती, अभी से एक एक पैशा जोडूगी तभी तो दहेज दे पाऊँगी….. मेरी जरूरते इस दहेज पर कुर्बान होती रही….. अखिर क्यो? पापा!
—- “,,,,, क्या कुर्बानिया देने का अधिकार सिर्फ बेटियों को ही है,अपने मन को मारकर, एक कोने मे दुबक कर जिस दहेज के कारण सिसकती रही, वो मै क्यो न लू… माँ ने जो एक एक पैसा जोड़ा है मेरे दहेज के लिए मै तो वही मांग रही हूँ….
बेटी रमा की आँखो से आँसूओं की धारा बह रही थी… संजय ओर सरिता निरुत्तर अपने अतीत में झाँक रहे थेl
राघव दुबे
इटावा (उ0प्र0)
8439401034