आखिर क्यों असहाय हो जाते हैं हम…???
शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जो अपने पारिवारिक कार्यों, मित्रों, या फिर जहाँ से उसे थोड़ा-बहुत लाभ होता हो, को प्राथमिकता नहीं देता हो, लेकिन प्रश्न तब उठता है जब किसी ऐसे व्यक्ति को कुछ समय देना पड़े और वह भी वहाँ जहाँ से किसी प्रकार का लाभ न हो तो हम एक तरह के चक्रव्यूह में फँस जाते हैं और तरह-तरह के ख्यालात हमारे चारों ओर घेरा बना लेते हैं। किसी मित्र के साथ घूमने या पिक्चर देखने जाना हो तो हम घण्टों दे सकते हैं, ठीक उसके विपरीत किसी घायल को अस्पताल पहुँचाना हो या रुककर उसकी बात सुननी पड़ जाए तो हमें हमारे कार्य याद आने लगते हैं?
आज सम्पूर्ण देश में समाजसेवी संस्थाओं या ऐसे व्यक्तियों की बदौलत समाजहित कार्य हो रहे हैं जो स्वयं, परिवार या मित्रों के अलावा उनके बारे में भी सोचते और कुछ न कुछ करते हैं जिनके साथ उनका कोई रिश्ता नहीं होता। उदाहरण के तौर पर कहीं सडक़ पर कोई घायल पड़ा हो तो आसपास खड़े लोग उसकी फोटो खींचकर सोशल मीडिया पर डाल देंगे, आपस में बातचीत कर लेंगे लेकिन ऐसे बहुत ही कम होंगे जो एम्बुलैंस का इन्तजार करने के बजाए उसे अस्पताल पहुँचाने की पहल करते हों। कोई अपना बीमार हो और उसके लिए खून की व्यवस्था करनी हो तो पूरे सम्बन्धियों को सूचना दे देंगे ताकि जल्द से जल्द स्थिति को संभाला जा सके, लेकिन उसके विपरीत किसी अपरिचित के लिए खून की व्यवस्था करवानी हो तो घड़ी की सुईयाँ नजर आने के साथ-साथ अनेकों कार्य भी दिखने लगते हैं और अधिकतर लोग यही कहते हैं कि मैं नहीं तो कोई और करवा देगाï।
यही प्रश्न अगर कोई बुद्धिजीवी उससे पूछे कि इस स्थान पर कोई गैर नहीं बल्कि अपनों के लिए करवाना होता तो क्या उस समय भी आप यही प्रश्न करते या सभी कार्यों को विराम देते हुए पहले मरीज को संभालते।
आइए समाजहित में हम अपना एक छोटा-सा कदम बढ़ाए ताकि हर ओर खुशियाँ देखने को मिलें। हमें दुआएं मिलें या न मिलें, इससे फर्क नहीं पड़ेगा, फर्क ये जरूर पड़ेगा कि हमारी छोटी-सी पहल या थोड़ा सा समय देने से किसी का भला हुआ।
उम्मीद में……
मनोज अरोड़ा
लेखक, सम्पादक एवं समीक्षक
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