आखिरी पड़ाव
वो क्या जिंदगी-२ है ? जो किसी के ओठों पर मुस्कान न ला सके,
मालिक के अनमोल नूर को जहाँ में जरूरतमंदो को न बाँट सके I
अब क्यों ?जिंदगी का आखिरी पड़ाव देखकर मन विचलित हो रहा ,
कोई न रह गया रहनुमा न हमसफ़र , मन भी तेरा संकुचित हो रहा ,
फूलों की बगिया में आखिर “प्यार की खुसबू” से क्यों वंचित हो रहा ?
मरूस्थल में थके हुए पथिक की तरह तेरा मन व्यथित क्यों हो रहा ?
वो क्या जिंदगी-२ है ? जो किसी के ओठों पर मुस्कान न ला सके,
मालिक के अनमोल नूर को जहाँ में जरूरतमंदो को न बाँट सके I
लाचार- बेबस की भूख से कभी तुझे बेहाल होते नहीं देखा ,
गरीब- मजलूमों के आंसुओं में तुझे निहाल होते हमने देखा ,
नफरत के सौदागरों से तुझे सवाल करते नहीं हमने देखा,
बेटियों के “ अस्मत के लुटेरों” से तुझे प्यार करते हुए देखा I
वो क्या जिंदगी-२ है ? जो किसी के ओठों पर मुस्कान न ला सके,
मालिक के अनमोल नूर को इस जहाँ में जरूरतमंदो को न बाँट सके I
“मेरे मालिक” ने तुझे हर मोड़ पर प्यार का रास्ता दिखाया ,
लेकिन तुझे नफरत का रास्ता बहुत ही आसान नज़र आया ,
इंसानियत की किताब को तार-२ करने में तुझे मज़ा आया ,
आखिरी पड़ाव की तरफ कदम बढ़ाकर मन क्यों घबराया ?
वो क्या जिंदगी-२ है ? जो किसी के ओठों पर मुस्कान न ला सके,
मालिक के अनमोल नूर को इस जहाँ में जरूरतमंदो को न बाँट सकेI
मत घबड़ा “ राज ” हर किसी को इस गुलिस्तां से है जाना,
“इंसानियत का दीपक” बुझाकर अपना घरोंदा न सजाना,
जग के मालिक का खौफ दिल में रखकर अपने को बढ़ाना,
“प्रेम का दीपक” जलाकर ही आखिरी पड़ाव पर कदम बढ़ाना I
वो क्या जिंदगी-२ है ? जो किसी के ओठों पर मुस्कान न ला सके,
मालिक के अनमोल नूर को इस जहाँ में जरूरतमंदो को न बाँट सके I
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देशराज “राज”