आख़री ख़त (नज़्म)
कशिश-ए-इश्क़-ओ-वा’दा-ए-उल्फ़त की जंग जारी है
साक़-ए-अर्श पे अब्र और फ़र्श-ए-जमीं पे गर्द तारी है
ये क्या बे-हिसी, आलम-ए-बर्बाद करने की बात करती हो
ये सुनो की अब इश्क़ में तबाह करने की बारी हमारी है
आमादा उस भरे अंजुमन में तुमने मिरा मज़ाक़ बनाया था
ज़िंदगी पूरी लग गई भूलने में जो मर्ज़-ए-फ़िराक बनाया था
इक अस्मत को जो हमने दिल-ए-कोख़ में संभाल रक्खा था
और एक शख़्स जिसका चेहरा जो ख़ुर्शीद-जमाल रक्खा था
अमलन अब उस की ओर ये अब्सार भी नहीं उठते है
तुमसे मिले हुए दिल पे ये उभरे मिरे अबाले है जो जलते है
ये आफ़्ताब, वो महताब जुगनुओ का, तुम शरारा लगती थी
इक़बाल में इलाह का इक़रार ग़ज़ाल-चश्म-नज़ारा लगती थी
हुजूम-ए-राह-ए-रवाँ में दिखता क़मर-सू नीम-पोशीदा थी
तुम उन गुल-पैहरन में कितनी नाज़, इश्राक़ पसंदीदा थी
ग़र मुझे इसका ज़रा भी इल्म होता, जो अब हुआ है साथ
इश्क़-ए-उरूज़ को छूने की तिश्नगी न करता जो कज़ा है साथ
इस गैहान में लोग मिर्ज़ा-साहिबा, हीर-रांझे को इश्क़-ए-बूत कहते है
और कहते है की, खिज़ा में इश्क़ करने में ख़जालत की बात करते है
अब ये क़ब्ल इस गैहान को छोड़ देने कि मर्ग-ए-सदा देता है,
और मिरे ज़हन में आता हर ख़याल तुम्हारा मुझे रुला देता है
मेरी हर ग़ज़ल, नज़्म-ओ-कता में तुम्हारा ज़िक्र करता हूँ, ख़ानुम
मुझे तुमसे खलिस-ए-इश्क़ था, यही खता थी, चलता हूँ, ख़ानुम
इस ख़त को पड़ कर तुम इसे जला देना, और भुला देना
नहीं चाहता की कोई इस तरह से इश्क़-ए तशरीर करे, यादें हटा देना
मैं कोई शाहजहाँ तो नहीं और न ही ताज़महल सा कोई नज़्मकार हूँ
तुम जानती हो मुझे, जिसने तुमसे पाक़-इश्क़ किया वही गुनहगार हूँ