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5 Dec 2017 · 1 min read

आकाश में स्वछंद विचरते ये पंछी !

आकाश में स्वछंद विचरते ये पंछी !
धरती से अंबर को नापते
ऊँची और ऊँची उड़ान भरते
अक्सर मुझे नींद से जगाते हैं
इनके मधुर गीतों से
जीवन का एहसास होता है
न कोई बंदिश ,न सीमा उड़ान की
वही , दूसरी और हम ?
पिंजरा नहीं पर फिर भी
ऐसा लगता है कैदी हूँ मैं!
बेड़ियाँ नहीं लेकिन जकड़ी हूँ
मैं !
ऐसे रिश्तों में जो मेरे अपने है
मैंने पिरोया हैं माला में इन मनकों को
बाँधा भी मैंने ही ..
फिर क्यों कुछ अधूरा -सा है ? इनके पंखो को देख
क्यों टीस उठती है हिया में ?
क्यों चाहकर भी नहीं निकलना चाहती
पिंजरे से मैं ?
शायद ये बसेरा हैं मेरा
जहां जीवन के हर पड़ाव को जिया हैं मैंने
स्नेह के धागे में एक एक रिश्ते को संजोया है
मैं उनसे जुडी हूँ , वो मुझसे
तभी तो खींचने पर
दर्द होता है यहाँ भी .. वहाँ भी
लगता है अब आदत हो गयी है
इस पिंजरे की
जिसमे दीवारे है मेरी यादों की
सुनहरे सफ़र की ,
जीवन में आये उतर -चढ़ाव की ..
अब तो यहीं जीना और मरना हैं
ये सिर्फ़ घर नहीं मेरा ..
जीवन की सरिता है
जो अनवरत बही जा रही है….

Language: Hindi
1 Like · 506 Views
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