आकारों के आस-पास!
शीर्षक- आकारों के आस-पास
विधा- कविता
संक्षिप्त परिचय- ज्ञानीचोर
शोधार्थी व कवि साहित्यकार
मु.पो. रघुनाथगढ़, सीकर राजस्थान
मो. 9001321438
ईमेल – binwalrajeshkumar@gmail.com
जैसे ही अक्स बनता है उनका
कई आकार घिर आते !
हाशिये पर पड़े भाव घिसे हुए
दबे आकार में उभर आते।
मैं अक्स में ढूंढता फूल को
दबे-कुचले लघु आकार
कह जाते मेरी भूल को
अक्स से टपकते आँँसू
कह जाते उनके शूल।
पल-पल रूप बदलते अक्स में
शिवाकार गिरिजा कभी
तो कभी होरी भोलू मुनिया
कभी-कभी अक्स बनता सुघड़
फिर! सामाजिक विद्रूपता
विकृत करते अक्स को।
विचलित होते भाव घिरे आते
अक्स टूटता, फिर बनता।
मानसिकता पर कर सवाल खड़े
डरता हूँँ! फिर भी अक्स बनाता।
हर बार आकारों के आस-पास
सामाजिक विद्रूपता के चेहरे
घेर अक्स को रहते वहाँ अड़े।
क्यों न बनता अक्स मुझसे उनका!
अक्स से टपक पड़े आँँसू
लिखे गए कुछ शब्द…
व्यष्टि का अक्स बनाते मेरा
रुद्राक्षी हूँ! समष्टि अक्स मेरा।