*** आकांक्षा : एक पल्लवित मन…! ***
” कहती है बेटी पांव पसार…
मुझे चाहिए प्यार-दुलार…!
मैं हूँ बे-जोड़ रचना की…
एक अनमोल आकार…!
प्राकृत मन की…
हूँ मैं, एक अनुपम उपहार…!
कलियों की तरह, इस दुनिया में…
मुझे खिल जाने दो…!
ममता की खुशबू में…
मुझे घुल-मिल जाने दो…!
सोंचो जरा…! बिन हमारे…
बस न सकेगा, घर-परिवार…!
गर्भ से लेकर यौवन तक…
लटक रही है, मुझ पर तलवार…!
मेरी व्यथा और वेदना का…
अब हो, कोई स्थाई उपचार…!
मेरी आकांक्षा…
सु-व्यवस्थित समाज की, है पहिचान…!
अंकुरित मन की…
कर मंथन, हे मनु-संतान…!! ”
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* बी पी पटेल *
बिलासपुर ( छ. ग. )
२६ / ०९ / २०२३