आओ हे ऋतुराज पधारो
आओ हे ऋतुराज पधारो
अनुपम नेह धरा पर वारो
रक्तिम, पीत गैरिक पुष्पों से
शाख – शाख को पुनः संवारो
वन उपवन में सूने मन में
सृष्टि सकल ,सकल जन-जन में
अपने मादक स्मित हास से
खिन्न हृदय को पुनः संवारो
द्रुम रसाल पर सजे बौर फिर
ऋतुराज को मिला ठौर फिर
पुष्पित सज्जित आम्र बौर सा
जीवन सबका पुनः संवारो
किंशुक आभा वन प्रांतर में
संत विराजित जैसे अंतर में
किंशुक सा आभामय बनकर
इस जगती को पुनः संवारो
अशोक सोनी
भिलाई ।