आओ बनें शब्द के साधक
सब कुछ व्यक्त नहीं कर पाती, खामोशी की भाषा।
सदा अपूरित ही रहती है, अंतस की अभिलाषा।।
तब ही शब्द काम आते हैं, कहते जो कह पाते।
सब कुछ मगर कहाॅं कह पाते, कुछ-कुछ कह न अघाते।।
कभी किसी दिन कह पाऊंगा, यह कवि की प्रत्याशा।
सदा अपूरित ही रहती है, अंतस की अभिलाषा।।
सीमा नहीं शब्द की लेकिन, कवि की अपनी सीमा।
परिवर्तन है नियम प्रकृति का, द्रुत हो अथवा धीमा।।
परिवर्तन के साथ शब्द की, परिवर्तित परिभाषा।
सदा अपूरित ही रहती है, अंतस की अभिलाषा।।
शब्द-शक्ति का भान जिन्हें वे, सतत साधना करते।
शब्दों का सार्थक प्रयोग कर, पीर पराई हरते।।
कवि को नहीं घेरने पाती, कुंठा- ग्लानि- हताशा।
सदा अपूरित ही रहती है, अंतस की अभिलाषा।।
आओ बनें शब्द के साधक, हम खामोशी त्यागें।
भ्रष्ट हुए सत्तासीनों से, हम अपना हक मांगें।।
चलने न दें सियासत में अब, छली शकुनि का पासा।
सदा अपूरित ही रहती है, अंतस की अभिलाषा।।
महेश चन्द्र त्रिपाठी