आएगी वो भी सिमटकर बहार क्यूँ ना हो
आएगी वो भी सिमटकर बहार क्यूँ ना हो
उसके तस्व्वुर से दिल गुलज़ार क्यूँ ना हो
दिल में शहनाई- सी बजे उसकी बातों से
ना सुनूँ अब वाइज़ की गुफ्तार क्यूँ ना हो
नज़रों में समाई है मैकशी ज़माने की
मयकदे का दरवाज़ा ना-चार क्यूँ ना हो
बदल के तेज़ धूप को चाँदनी रात कर दे
उस पल के लिए ये दिल बेक़रार क्यूँ ना हो
जो निकल गई लबों से हर बात निभाई है
तुम ही कहो उस शख़्स पे एतबार क्यूँ ना हो
मिला है अब जाके ज़माने में ख़ुद सा कोइ
निसारउस पर दिल-ए-रंग-ए-बहार क्यूँ ना हो
हज़ार क़ाफ़िले आते हैं जश्न मनाते हुए
उसकी दीद का ‘सरु’को इंतज़ार क्यूँ ना हो