आईना- २
हमेशा मेरे शब्दों पर
सन्देह किया
मेरे शब्दों से तुम्हें गंध आती थी
गंगा जल में मैंने मुंह धो लिया
साफ़ किया शब्दों को
फिर भी तुम नहीं माने
बोले,”आख़िरी मुलाकात है ये”
फिर कभी नहीं मिलेंगे हम
सोचकर घर से निकली
तुम्हारे सारे सन्देह को
पर्स में रखकर
सामने तुम बैठे थे
तैर रही थी तुम्हारी नजर मेरे शरीर पर,और जैसे बोल रही थी
“गंगाजल भी तो मैला है”
मैं कुछ बोलना चाहती थी
लिखना चाहती थी
एक कविता सच की
मगर शब्द कहां से लाऊँ
काश! उधार में मिलता कहीं से
सोच रही हूँ, अब से
भुला दूँगी तुम्हें
तुम्हारी बातें
तुम्हारी हँसी
तुम्हारा स्पर्श और
ऐसे ही कुछ व्यर्थ के पलों को
पवित्र होने के लिए
क्या सचमुच
गंगा जल की आवश्यकता है
या आग की
आईने के सामने खड़ी हो गई
नज़र ढूँढ रही थी ख़ुद को
तुम तो पास नहीं थे
और आईने में मै भी
कहाँ थी !
***
पारमिता षड़ंगी