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25 Nov 2021 · 1 min read

आईना देख

लगता है डर अब उजाले में मुझको, क्यों रोशनी मुझको खलने लगी है।
आईना देख बेचैन हो जाता है मन, मुझे मेरी निगाहें ही खटकने लगी है।।

चहकती फिरेगी कैसे आजाद चिड़िया, छुरी रिश्तों के पर कतरने लगी है।
छूट पाती भी कैसे इनके जंजाल से, प्रेम के फ़ांस में फँस तड़पने लगी है।।

दिया आसरा करके जिन जिनको साया, बाँट कर हिस्से में डाल छँटने लगी है।
ठूंठ सा रह गया मतलबी बाजार में बस, इस पुराने सज़र कि उम्र घटने लगी है।।

भँवर बीच मछली रही उलझी उलझी, उहापोह में क्षमता वो बिसरने लगी है।
लड़ती थी जो कल लहरों से भर दम, आज बेदम हो लहरों में बहने लगी है।।

जब रहा फलता फुलता था सबका प्यारा, कुरीति की नीति यूँ पलने लगी है।
दुहन हो चुका जिसका संसार मे पूरा, वो निरीह गाय बूचड़ में कटने लगी है।।

©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित ०६/०७/२०२१)

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