आइसक्रीम के बहाने
आइसक्रीम के बहाने
“दादा जी, डिनर हो गया। चलिए, अब हर सटरडे की भाँति आज भी बाहर से आइसक्रीम खाकर आते हैं। मम्मी-पापा भी जाने के लिए बस तैयार ही हैं।” पाँच वर्षीय सोनू बोला।
“बेटा सोनू, आज मुझे थोड़ा अच्छा नहीं लग रहा है। आज मम्मी-पापा के साथ ही तुम चले जाओ।” शर्माजी ने कहा।
“कैसा लग रहा है आपको पापा जी ? तबीयत ठीक नहीं लग रही है, तो हम डॉक्टर के पास चलते हैं। या फिर डॉक्टर को ही घर बुला लेते हैं।” बहू रेणुका बोली।
“अरे नहीं बेटा। तुम नाहक परेशान हो जाती हो छोटी-छोटी बातों पर। ऐसा कुछ भी नहीं है। मेरी तबीयत उतनी भी खराब नहीं कि डॉक्टर को दिखानी पड़े। इस उम्र में छोटी-मोटी समस्याएँ लगी रहती हैं। तुम लोग जाओ। आइसक्रीम खाकर आ जाओ।” शर्माजी ने कहा।
“ठीक है फिर। यदि आप नहीं जाएँगे, तो हम भी नहीं जाएँगे।” सोनू बोला।
“अच्छा एक काम करो। तुम लोग चले जाओ, तुम लोग वहीं खा लेना और आते समय मेरे लिए लेते आना।” शर्माजी ने सुझाया।
“नहीं दादा जी। आप ही तो शुरु से हम सबको सिखाएँ हैं कि आइसक्रीम का मजा एक साथ बाहर घूम-घूम कर खाने में ही आता है।” सोनू बोला।
“पापा, यदि आपकी तबीयत ठीक नहीं है, तो आज हम वॉकिंग करते हुए न जाकर कार से चले चलते हैं।” रमेश बोला।
शर्मा जी को याद आया कि रमेश के बचपन के दिनों में वे उसे आइसक्रीम या जलेबी खिलाने के बहाने कैसे वॉकिंग कराने ले जाया करते थे। यदि किसी दिन रमेश कुछ भी बहाने करता, तो वे उसे कंधे पर बिठाकर ले जाते। कहाँ तो शर्माजी सोच रहे थे कि हर वीकेंड कवाब में हड्डी बनने की बजाय, बेटा-बहू को उनकी लाइफ इंज्वॉय करने दूँ, पर यहाँ तो बेटा-बहू खुद ही बहुत इमोशनल हो गए।
अंततः शर्माजी को बोलना ही पड़ा, “ठीक है। चलो धीरे-धीरे वॉक करते हुए ही चलते हैं।”
“हुर्रे….” सोनू मारे खुशी के दादा जी से लिपट गया था।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़