आंसू डूबी मुस्कान
मित्रो शुभ संध्या ,,,,,,,,,
प्रिय जनों की बेहद मांग पर एक पुरानी रचना ……………….
आंसू डूबी मुस्कानों का मैंने नित बसंत देखा है ,,,,,,,,,,
जन जन के अंतर का मैंने छिपा हुआ द्वन्द देखा है ………
सुमनों के द्रग भर आये थे ,,मेरे प्यासे नयन देखकर ,,
अपनी ही पीड़ा को मैंने ,,होते हुए संत देखा है ,,,,,
बात पूंछता जब नैनों से कभी कभी मीठे स्वप्नों की
मौन हो गयी वाणी मेरी ,,निद्रा को ठगते देखा है …..
विफल हो गए जब विवेक के ये सारे मतवाले चिंतन
अपने ही साये को मैंने अपने से डरते देखा है ………………
आस करू कैसे किस पग से भला कभी मधुरिम नर्तन की
मैंने कदमो की थिरकन में छल प्रपंच होते देखा है ,
वैसे तो अनुभव के पथ पर उम्र तकाजा करती है पर …
महलो से झोपड़ियों तक में ,,दुःख का एक तंत्र देखा है ,,
काफी सोचा समझ न पाया ,एक बात भी खुशहाली की ……
देह नेह के संबंधो का होते हुए अन्त देखा है ,,
जन मानस की पीड़ा को अब नहीं समझ पायेगा कोई ..
बाहर बेशक उजियाला हो ,,अन्दर निशातंत्र देखा है ।
सतीश पाण्डेय