आंदोलन से वास्ता!
जब मैं बारहवीं का छात्र था,
और चल रही थी बोर्ड परीक्षा,
नकल करते पकड़े गए कुछ छात्र,
मचाने लगे वह उत्पात,
अब अगले दिन की परिक्षा को रोकने लगे,
वह छात्र जो नकल करते थे पकड़े गए,
उन्होंने गेट को घेर लिया,
अंदर जाने से रोक दिया,
पहले हमारा समाधान होगा,
तब परिक्षा में कोई जा सकेगा,
गेट पर छात्र छात्राओं का जमघट लग गया,
कैसे अंदर जाएं हर कोई कहने लगा,
परिक्षा न छूट जाए,
हम घबराए,
वह लगे हुड़दंग मचाने,
परिक्षा को नहीं देंगे जाने,
हम परिक्षा के हिमायतियों ने कहा,
भाई तुमने ही तो गलत किया,
और अब फिर से गलती कर रहे हो,
हमको जाने से रोक रहे हो,
तुम्हारी गलती की हम क्यों सजा भुगतें,
फिर हम लगे आगे बढ़ने,
अब हम कुछ छात्र निसाने पर आ गए,
जो परिक्षा में शामिल होने को थे आगे बढ़ रहे,
गेट पर होने लगी धक्का मुक्की,
आरोप-प्रत्यारोप के संग गालियों की बौछार,
और देख लेने की धमकियों की भभकी,
छात्राओं का साहस दम तोड़ने लगा,
रुआंसी होकर आंसुओं में बहने लगा,
तब मैंने किया सबका आह्वान,
हम बिना दोष के क्यों करें पलायन,
जिन्होंने तरीका ही गलत अपनाया था,
वही गलती का करें परिमार्जन,
हम उनकी गलतियों की सजा क्यों भुगतें,
आओ मिलकर सब आगे को बढ़ें,
यह सुन देख कर अन्य छात्र भी साथ आ गये,
एक जोर का धक्का दिया और राह बना गये,
परिक्षा में हुए शामिल तो राहत की सांस ली,
इस तरह से हमने वह परिक्षा पुरी करी,
अब बाहर निकले तो सुकून हो रहा था,
तब अन्य साथियों से आभार मिल रहा था,
तभी किसी साथी ने आगाह भी किया ,
बहिष्कृत हुए हैं जो उनसे बच के भी रहना,
कहीं वह अपनी धमकी को अंजाम दे दें,
हमें मार पीट कर घायल न कर दें,
तब जवानी के जोश में हम भी कह गए,
नहीं हैं कोई हम भी चुडियां पहने हुए,
अपने हित का खुद हमें ही ख्याल रखना है
ऐसे अवरोधों से कैसे कहां तक बचना है,
तो कभी कभी हमको आपात निर्णय लेने पड़ जाते हैं,
अपने अस्तीत्व को बचाने के लिए आंन्दोलन करने पड़ जाते हैं।
(यादों के झरोखे से)