आंखें
आंखें
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कितने सैलाब समेटे तकती रहीं आंखें
तुम्हारा रास्ता बुहारती रहीं आंखें ।
देर से आने की खबर बरस गयी ,
सावन में भी प्यासी रहीं आंखें ।
तुम्हारे आने की हर आहट से मचलकर,
पलकों पर ही सदा टँगी रहीं आंखें ।
देर करना है तुम्हारा शगुल ,इसलिए ,
बरसती ,झपकती ,तड़पती रहीं आंखें ।
न तुम आये न तुम्हें आना था !
इंतज़ार की अपनी आदत में मस्त आंखें ।
पिछली सदी में हुए थे रुखसत ,
अगली सदी तक आंखमिचौली खेलती रहीं आंखें ।
शरद के शीतल चांद सी खिलीं ,
बसन्त के फूलों सी महकी,
ग्रीष्म की तपती दुपहरी सी ,
बारिश में गीली सड़क जैसी ,
तुम्हारे इंतज़ार की चांदनी में नहा ,
पलकों के बिखेर केश ,
हौले हौले घर से बाहर निकलती ,
क्षितिज को छू तुम्हें महसूस करतीं आंखें ।
डॉ संगीता गांधी