आँगन का चुल्हा
सांझ-सवेरे जब लकड़ी सुलग जाती है।
शाम होते आंगन का चुल्हा याद आता है ।
माँ याद आती है रोटी बनाती
बहन याद आती है बेलन घुमाती
भाई याद आता है गरम रोटी खाते
बाबा याद आते हैं नशे में नहाये
दादी की आँखों अश्रु निकल आता है ।
शाम होते आंगन का चुल्हा याद आता है ।
जलती हुई रोटी भी कम है माँ के घावों से
जीवन था बीत रहा बड़े बड़े दावों से
चुप चुप आवाज आती है सारे गाँवों से
मैं भी यह कह रहा भरे हुए भावों से
आग की तपिश में माँ का मन भी सुलग जाता है ।
शाम होते आंगन का चुल्हा याद आता है ।
आँखों के आँसू धुएँ में घुल जाते हैं
माँ के ये आँसू तो रोज रोज आते हैं
नशे मे पिता जाने क्या क्या कह जाते हैं
कभी कभी बच्चों संग प्रेम गीत गाते हैं
देख ऐसे दृश्य माँ का मन भी बहल जाता है
शाम होते आंगन का चुल्हा याद आता है ।