आँखे शर्मिंदा है।
मरते ज़मीरो को देख आँखे शर्मिंदा है,
नापाक सही किरदार मेरा ज़िन्दा है।
फ़स जाता है परिंदा मासूम सा कोई,
लगाते किस हुनर से जो ये फंदा है।
बिकते है इंसान यहां चंद सिक्को में,
इंसानियत का बाजार कितना मंदा है।
ग़म ए जहाँ से गाफ़िल है वो शख्श,
जो कम दिमाग है या फिर अंधा है।
सफेदपोश की उतरनें पहनें चूम के,
गरीब मज़दूर का कहते हाथ गंदा है।
तेरी दुनिया आके तू ही संभाल,
किसी और सफर मशगूल ये बंदा है।
अम्बर