आँखें मूंद कर सोना ठीक है, चलना नहीं
हिन्दू मुसलमान का खेल जबतक चलता रहेगा इस देश में, देश का भला नहीं हो सकेगा और होगा भी कैसे? हम अपनी वैचारिकता को बढ़ाते ही नहीं (कुछ पढ़े लिखे लोग भी बढाना नहीं चाहते) जो सिखाया गया है बस उसी ढर्रे पर चल पड़ते हैं, ये जाने बगैर कि सिखाया गया क्या सही है भी या नहीं? खासकर कालांतर में क्या ठीक था और क्या सही रहेगा… इसका आंकलन किये बग़ैर, बस आँखें मूंद कर चल रहे हैं, आँखें मूंद कर सोना ठीक है, चलना नहीं।