आँखें कुछ ख़फ़ा सी हो गयी हैं,,,!
आज रात
हुआ यूँ कि,
मैं कर रहा था कोशिश
नाक़ाम सी,
सोने की…!
बाईं करवट से कुछ
घुटनों को मोड़कर,
आद़तन
इन आखों को बंद कर,
मग़र
पता नहीं क्यूँ…???
ये आँखें शायद्
कुछ ख़फा सी हो गयी हैं,
या लगता है
कि यूँ ही बस खुराफ़ात कर
ख़ाम-खा
हमें सता रहीं हैं,
या ख़ुदा
तीन बज गये सुबह के,
हैरत में हूँ बड़ी
कि इनको क्या हुआ…??
पहले तो ऐसी नहीं थीं,
बड़ी ही नज़ाकत से
“निंदिया” को
यूँ आगोश में समेट लेती थीं,
कि जैसे
घुप्प् अँधेरे से
सहमा हुआ इक छोटा बच्चा
माँ के आँचल में
दुब़क जाता है…!
आजकल
ना जाने क्यूँ..? ज़माने की तरह
कम्ब-अ-ख़त्
बहुत ज़ुलम कर रही हैं,
ये आँखें शायद
कुछ ख़फा सी हो गयीं हैं…!!
………पंकज शर्मा