अहम का वहम
मैं ही मैं हूँ
शून्य भी मै, अनन्त भी मैं
मेरे लिए ही सब कुछ है
बस मै ही सजीव -सा
बाकी सब निर्जीव-सा
मैं ही भूमण्डल का अधिकारी
सब हैं नश्वर प्राणी
प्रकृति का हर रूप है मेरा
जल-थल-नभ मेरे मुट्ठी में
नगण्य यहां हर विशाल
मै ही बस विकराल यहाँ
भय भी भयभीत हुआ
नतमस्तक सर्वशय यहां
प्राणी मात्र मैं मनुष्य ही प्राणी
सृष्टि सृजन में
मैं ही सृजन कर्ता, मैं ही विध्वंसक हूँ
वहम नाम के घोड़े को
अहम में अपने दौड़ाये हूँ
नगण्य, लघु, विशाल सब
अँगूठे से दबाये हूँ
स्मृति नहीं है तुझको
विग्यान नियम तो आयेगा
क्रिया के बदले प्रतिक्रिया दर्शायेगा
दिख न सके वो वार हुआ
विराट, विध्वंसक, विकराल हुआ
धूमिल -धूमिल सा, मैं प्राणी हुआ
स्पर्धा को बांध खूटे में
संयम, धैर्य को खोज रहा हूँ
कर्म फल जो फूट रहा है
मै ही इसका अधिकारी हूं
यह प्रकृति नहीं, हमारी है
हर प्राणी, प्रकृति का
प्रकृति ,हर प्राणी की