अहद
ज़िंदगी कुछ बोझिल सी हो गई है ,
खुश़गवार चेहरों की खुशी गुम़ हो गई है ,
एक अजीब सा खौफ़ ज़ेहन पर तारी है ,
चारों तरफ माहौल में अजब सी लाचारी है ,
मुस्कुऱाहट की कोशिशें भी नाक़ाम हो गई है ,
कतरा कर निकल जाने की मजबूरी हो गई है ,
अपने ही गम में खोया हुआ सा लगता है आदमी ,
क़ुदरत के क़हर से सताया बेब़स लगता है आदमी ,
न जाने किस क़दर क़हर की ये लहर आई है ,
मौजों की रव़ानी से इस शहर में म़ुर्दनी सी छाई है ,
इंतज़ार के स़ब्र का बांध अब टूटने लगा है ,
कुछ कर गुज़रने का जज़्बा ज़ोर पकड़ने लगा है ,
क़ुदरत के इस क़हर को अब हम और ना सहेंगे ,
अपने जी जान से इस क़हर से अब हम लड़ेंगे ,
और इसे जड़ से मिटा कर ही अब हम दम़ लेंगे ।
श्याम सुंदर सुब्रमण्यन्
बैंगलोर